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शनिदेव दॄष्टि नीचे की ओर ही क्यों रहती है – पौराणिक कहानी

Written by hindicharcha

माता पार्वती पुत्र श्री गणेश का जन्म हुआ तब कैलाश में उस उपलक्ष में उत्सव मनाया जा रहा था,  उस उत्सव में सभी देवता, मुनि, सिद्धगण, सूर्य-चंद्रादि, पर्वत सभी आए।  सबसे पीछे शनिदेव भी वहां पंहुचे। उनका मुखमंडल अति नम्र, आंखें बंद करके मन श्रीकृष्ण भक्ति में लीन था। वे तप: फल के भक्षक, तेजस्वी, धधकती अग्नि शिखा के समान तेजवान, सुन्दर, श्यामवर्णी, श्रेष्ठ थे और पीतांबर धारण किए थे।

उन्होंने ब्रह्मा, विष्णु शिव, धर्म, सूर्यादि व मुनिजनों को नमन किया। फिर बाद में श्री गणेश जी के दर्शन के लिए भीतर गए, जहां माता पार्वती अपने पुत्र के साथ थी। उन्होंने शीश झुकाकर उन्हें प्रणाम किया। सखियों से घिरी माता पार्वती ने उन्हें आर्शीवाद दिया और कुशलता पुछी।

शनिदेव को मुंह नीचे किए देख माता पार्वती ने पुछा कि हे ग्रहाधिप! खुशी के इस अवसर पर तुमनें मुंह नीचे की ओर क्यों झुका रखा है ? तुम मेरी ओर या मेरे बालक की ओर क्यों नहीं देख रहे ? इसका रहस्य मुझे बताओ। मैं सुनना चाहती हूं।

तब शनिदेव ने बताया कि हे माते ! सभी जीव अपने कर्मो का फल भोगते हैं। कर्म कैसा भी हो, उसका करोड़ों कल्पों तक भी क्षय नहीं होता। कर्मानुसार ही जीव ब्रह्मा, इंद्र, सूर्य भवन में जन्मता है और कर्मानुसार ही वह मनुष्य, पशु आदि योनियों में उत्पन्न होता है। कर्म से ही वह स्वर्ग भोकता है और कर्म से ही नरक भोगता है। कर्म से ही कभी राजा बनता है तो कभी दास बनता है। कर्म से धनी बनता है और कर्म से ही निर्धन, विषयभोगी, पुत्रवान, दुष्ट स्त्री का पति बनता है।

मेरी दॄष्टि नीचे की ओर ही क्यों रहती है, इससे गुप्त संबद्ध गुप्त रहस्य मैं आपको बतलाता हूं। हे माते ! मैं बाल्यकाल से कृष्ण भक्त हूं। मेरा चित हमेशा कृष्ण भकित में लगा रहता था। विषय भोगों से विरक्त मैं तपस्या में लीन रहता था। मेरे पिता (सूर्यदेव) ने मेरा विवाह चित्ररथ गंधर्व की कन्या से कर दिया ।

वह सती साध्वी भी सदैव तपस्या में लीन रहती थी। वह तेजस्विनी थी। एक दिन वह ऋतु स्नान कर मेरे समीप आई। तब मैं भगवत चिंतन में लीन था। बाहरी ज्ञान मुझे बिल्कुल नहीं था। उस साध्वी ने अपना ऋतुकाल व्यर्थ जाते देख मुझे शाप देते हुए कहा कि आज से तुम्हारी दॄष्टि नीची ही रहेगी । जिस पर भी तुम दॄष्टि डालोगे उसका नाश हो जाएगा।

शाप सुनकर मेरी तंद्रा टूटी, तब मैंने उसे संतुष्ट किया। लेकिन वह शापमुक्त करने में असमर्थ थी। इसके लिए उसे बाद में पश्चाताप भी हुआ। माते ! यही कारण है कि मैं किसी को भी नहीं देखता। जीव हिंसा होने के भय से मैं मुंह नीचे किए रहता हूं।

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